कृतज्ञता
भरत भाई कपि से उऋण हम नाहीं
सौ योजन मर्याद सिन्धु की, लाँघि गयो क्षण माँही
लंका-जारि सिया सुधि लायो, गर्व नहीं मन माँही
शक्तिबाण लग्यो लछमन के, शोर भयो दल माँही
द्रोणगिरि पर्वत ले आयो, भोर होन नहीं पाई
अहिरावण की भुजा उखारी, पैठि गयो मठ माँही
जो भैया, हनुमत नहीं होते, को लावत जग माँही
आज्ञा भंग कबहुँ नहीं कीन्हीं, जहँ पठयऊँ तहँ जाई
‘तुलसिदास’, मारुतसुत महिमा, निज मुख करत बड़ाई