मोहन की मोहिनी
आवत ही यमुना भर पानी
श्याम रूप काहूको ढोटा, चितवानि देख लुभानी
मोहन कह्यो तुमहीं या ब्रज में, हम कूँ नहिं पहिचानी
ठगी रही मूरत मन अटक्यो, मुख निकसत नहीं बानी
जा दिन तें चितये री वह छबि, हरि के हाथ बिकानी
‘नंददास’ प्रभु सों मन मिलियो, ज्यों सागर में पानी

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