आत्मानुभूति
चैतन्य स्वरूप ही आत्मा है
यह शुद्ध देह का शासक है, अन्तःस्थित वही शाश्वत है
आत्मा शरीर को मान लिया, मिथ्या-विचार अज्ञान यही
यह देह मांसमय अपवित्र और नाशवान यह ज्ञान सही है
इच्छाओं का तो अन्त नहीं, मन में जिनका होता निवास
मृग-तृष्णा के ही तो सदृश, मानव आखिर होता निराश
यह राग द्वेष से भरा हुआ, संसार स्वप्नवत् नहीं टिकता
अज्ञान निवृत जब हो जाये, सारा प्रपंच ही मिट जाता  

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