नाम स्मरण
दिन यूँ ही बीते जाते हैं, सुमिरन करले तूँ राम नाम
लख चौरासी योनी भटका, तब मानुष के तन को पाया
जिन स्वारथ में जीवन खोया, वे अंत समय पछताते हैं
अपना जिसको तूँने समझा, वह झूठे जग की है माया
क्यों हरि का नाम बीसार दिया, सब जीते जी के नाते हैं
विषयों की इच्छा मिटी नहीं, ये नाशवान सुन्दर काया
गिनती के साँस मिले तुझको, जाने पे फिर नहीं आते हैं
सच्चे मन से सुमिरन कर ले, अब तक मूरख मन भरमाया
साधु-संगत करले ‘कबीर’, तो निश्चित ही तर जाते हैं

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