प्रीति-माधुरी
गोपीवल्लभ के दर्शन में, मिलता सुख वैसा कहीं नहीं
गोपीजन का था प्रेम दिव्य, प्रेमानुराग की सरित् बही
दण्डकवन के ऋषि मुनि ही तो, आकर्षित थे राघव प्रति जो
वे बनी गोपियाँ, पूर्ण हुर्इं, अभिलाषा थी इनके मन जो
वे देह दशा को भूल गर्इं, हृदय में कोई और न था
श्रीकृष्णचन्द्र से प्रेम किया, वह तो आनन्द अद्वितीय था
जब सभी इन्द्रियों के द्वारा, भक्ति रस का ही पान करें
स्थिति प्रेम की अकथनीय, गोपी जिसमें निशि दिन विहरें 

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