विरह व्यथा
हरि देखे बिनु कल न परै
जा दिन तैं वे दृष्टि परे हैं, क्यों हूँ चित उन तै न टरै
नव कुमार मनमोहन ललना, प्रान जिवन-धन क्यौं बिसरै
सूर गोपाल सनेह न छाँड़ै, देह ध्यान सखि कौन करै

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