शरणागति
तुम मेरी राखौ लाज हरी
तुम जानत सब अंतरजामी, करनी कछु न करी
औगुन मोसे बिसरत नाहीं, पल-छिन घरी-घरी
सब प्रपंच की पोट बाँधिकैं, अपने सीस धरी
दारा-सुत-धन मोह लियो है, सुधि-बुधि सब बिसरी
‘सूर’ पतित को बेग उधारो, अब मेरी नाव भरी

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