स्तुति
जो विश्वबंद्य करुणासागर मैं शरण उन्हीं की जाता हूँ
शरणागत पालक विश्वरूप, मैं प्रभु का वंदन करता हूँ
जिनके प्रविष्ट कर जाने परे, जड़ भी चेतन हो जाते हैं
जो कारण कार्य पर सबके, मेरे अवलम्बन वे ही है
ऋषि मुनि देवता भी जिनका कैसा स्वरूप न जान सके
फिर तो साधारण जीव भला, कोई कैसे उन्हें बखान सके
जग की सृष्टि अरु प्रलय हेतु, स्वेच्छा से प्रकट वही होते
विविध रुप धर लीलाएँ, भक्तों के हित में ही करते
सबके स्वामी, सबके साक्षी जो अविनाशी जो वेद सार
वे मूल प्रकृति वे परम पुरुष, जो सूक्ष्म किन्तु जो है अपार
सब जीवों के अन्तर्यामी जिनके दर्शन हैं सहज नहीं
वे परमेश्वर वे मूल प्रकृति, वांछित फल दाता प्रभु वही
सबका कर देने पर निषेध, जो बच जाता है वही शेष
जो छिपे काष्ठ में अग्नि से, वे सर्वपूज्य सब हरें क्लेश

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