माया
माया से तरना दुस्तर है
आसक्ति के प्रति हो असंग, दूषित ममत्व बाहर कर दें
मन को पूरा स्थिर करके, प्रभु सेवा में अर्पित कर दें
पदार्थ सुखी न दुखी करते, व्यर्थ ही भ्रम को मन में रखते
होता न ह्रास वासना का, विपरीत उसकी वृद्धि करते
मन को नहीं खाली छोड़े हम, सत्संग संत से करते हों
उनके कथनों का चिन्तन हो, जिससे मन की परिशुद्धि हो
स्वाध्याय, प्रार्थना, देवार्चन, अथवा दिन में जो कार्य करे
पल भर भी प्रभु को नहीं भूले, मन को उनसे संलग्न करे

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