भक्ति भाव
नरहरि चंचल है मति मेरी, कैसी भगति करूँ मैं तेरी
सब घट अंतर रमे निरंतर मैं देखन नहिं जाना
गुण सब तोर, मोर सब अवगुण मैं एकहूँ नहीं माना
तू मोहिं देखै, हौं तोहि देखूँ, प्रीति परस्पर होई
तू मोहिं देखै, तोहि न देखूँ, यह मति सब बुधि खोई
तेरा मेरा कछु न जगत में, प्रभु ही करे निस्तारा
कहे ‘रैदास’ कृष्ण करुणामय, जय जय जगत अधारा
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Prabhu Ji Tum Chandan Ham Paani
दास्य भक्ति
प्रभुजी! तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी
प्रभुजी! तुम घन वन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा
प्रभुजी! तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरे दिन राती
प्रभुजी! तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहि मिलत सुहागा
प्रभुजी! तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करे ‘रैदासा’