सत्संग की महिमा
आसक्ति जगत् की नष्ट करें, खुल जाता है मुक्ति का द्वार
स्वाध्याय, सांख्य व योग, त्याग, प्रभु को प्रसन्न उतने न करें
व्रत, यज्ञ, वेद या तीर्थाटन, यम, नियम, प्रभु को वश न करें
तीनों युग में सत्संग सुलभ, जो करे प्रेम से नर नारी
यह साधन श्रेष्ठ सुगम निश्चित, दे पूर्ण शांति व दुख-हारी
आत्म स्वरूप है नारायण, हम शरण उन्हीं की ग्रहण करें
एकमात्र भाव बस प्रभु का हो, तो वही परमपद प्राप्त करे
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Ichchaaon Ka Parityag Karo
प्रबोधन
इच्छाओं का परित्याग करो
कर्त्तव्य करो, निष्काम रहो एवम् सेवा का कार्य करो
जो कुछ भी प्रभु से मिला हमें,वह करें समर्पित उनको ही
संकल्प जो कि हम करें जभी संयमित जपें प्रभु को ही
मन को मत खाली रहने दो, वरना प्रपंच घुस जायेगा
इसलिये सदा शुभ कर्म करो, दुर्भाव न मन में आयेगा
व्याकुल होकर प्रभु को खोजो, जड़ चेतन सब में एक वहीं
भक्ति में समाया यही भाव, मेरापन कुछ भी बचे नहीं
Uddeshya Purna Yah Jiwan Ho
जीवन का उद्देश्य
उद्देश्यपूर्ण यह जीवन हो
लक्ष्य के प्रकार पर ही निर्भर, मानव स्वरूप जैसा भी हो
जो सुख की खोज में भटक रहे, प्रायः दुःख ही मिलता उनको
हो जाय समर्पित यह जीवन, एकमात्र प्रभु के पाने को
वे अन्दर ही हैं दूर नहीं, प्रभु की इच्छा सर्वोपरि हो
सौंप दे समस्याएँ भी उनको, निश्चित प्रशांत तब मन भी हो
नारायण जो अच्युत, अनन्त, भक्ति से उनको प्राप्त करें
वह दिव्य ज्योति व दिव्य प्रेम, जो अविचल शांति प्रदान करें
Kathinai Se Dhan Arjan Ho
सात्विक दान
कठिनाई से धन अर्जन हो, और दान कर पाये
धन का लोभ सदा ही रहता, त्याग कठिन हो जाये
याद रहे अधिकांश धर्म में व्यय हो, कमी न आये
कुएँ से जल जितना निकले, फिर से वह भर जाये
धन कमाय जो भी ईमान से, वह सात्विक कहलाये
कृषि एवं व्यवसाय से अर्जित, राजस श्रेणी पाये
Kirtan Se Man Shanti Pate
कीर्तन महिमा
कीर्तन से मन:शांति पाते
प्रभु के स्वरूप का चिन्तन हो, आनन्दरूप मन में आते
अनुभूति प्रेम की हो जाये, तो भक्ति स्वतः मिल जाती है
अपनापन होने से ही तो, माँ हमको प्यारी लगती है
तन्मयता से जब कीर्तन हो, तो हरि से लौ लग जायेगी
सब छुट जायेगा राग द्वेष, प्रभु-प्रीति ही मन में छायेगी
Kya Yagya Ka Uddeshya Ho
यज्ञ
क्या यज्ञ का उद्देश्य हो
दम्भ अथवा अहं हो नहीं, शुद्ध सेवा भाव हो
हो समर्पण भावना, अरु विश्व का कल्याण हो
इन्द्रिय-संयम भी रहे, अवशिष्ट भोगे यज्ञ में
शाकल्य का मंत्रों सहित, हो हवन वैदिक यज्ञ में
संयम रूपी अग्नि में, इन्द्रिय-सुखों का हवन हो
अध्यात्म की दृष्टि से केवल, शास्त्र का स्वाध्याय हो
इस भाँति ज्ञानाग्नि में साधक, अज्ञान की आहूति दे
आहार संयम भी रहे, तो यज्ञ-साधन मुक्ति दे
द्रव्यों से होता यज्ञ उससे, ज्ञान-यज्ञ ही श्रेष्ठ है
अज्ञान एवं अहं को, ज्ञानाग्नि करती नष्ट है
Gayon Ke Hit Ka Rahe Dhyan
गो माता
गायों के हित का रहे ध्यान
गो-मांस करे जो भी सेवन, निर्लज्ज व्यक्ति पापों की खान
गौ माँ की सेवा पुण्य बड़ा, भवनिधि से करदे हमें पार
वेदों ने जिनका किया गान, शास्त्र पुराण कहे बार-बार
गौ-माता माँ के ही सदृश, वे दु:खी पर हम चुप रहते
माँ की सेवा हो तन मन से, भगवान कृष्ण को वह पाते
Garharsthya Dharma Sarvottam Hi
गृहस्थ जीवन
गार्हस्थ्य धर्म सर्वोत्तमही
इन्द्रिय-निग्रह व सदाचार, अरु दयाभाव स्वाभाविक ही
सेवा हो माता पिता गुरु की, परिचर्या प्रिय पति की भी हो
ऐसे गृहस्थी पर तो प्रसन्न, निश्चय ही पितर देवता हो
हो साधु, संत, सन्यासी के, जीवनयापन का भी अधार
जहाँ सत्य, अहिंसा, शील तथा, सद्गुण का भी निश्चित विचार
Duniya Main Kul Saat Dwip
भारतवर्ष
दुनियाँ में कुल सात द्वीप, उसमें जम्बू है द्वीप बड़ा
यह भारतवर्ष उसी में है, संस्कृति में सबसे बढ़ा चढ़ा
कहलाता था आर्यावर्त, प्राचीन काल में देश यही
सम्राट भरत थे कीर्तिमान, कहलाया भारतवर्ष वही
नाभिनन्दन थे ऋषभदेव, जिनमें यश, तेज, पराक्रम था
वासना विरक्त थे, परमहंस, स्वभाव पूर्णतः सात्विक था
सम्राट भरत इनके सुत थे, भगवत्सेवा में लीन रहे
उनका चरित्र था सर्वश्रेष्ठ, अनुसरण करे सुख शान्ति बहे
Pulakit Malay Pawan Manthar Gati
वसंतोत्सव
पुलकित मलय-पवन मंथर गति, ऋतु बसंत मन भाये
मधुप-पुंज-गुंजित कल-कोकिल कूजित हर्ष बढ़ाये
चंदन चर्चित श्याम कलेवर पीत वसन लहराये
रंग बसंती साड़ी में, श्री राधा सरस सुहाये
भाव-लीन अनुपम छबिशाली, रूप धरे नँद-नंदन
घिरे हुवे गोपीजन से वे क्रीड़ा रत मन-रंजन
गोप-वधू पंचम के ऊँचे स्वर में गीत सुनाती
रसनिधि मुख-सरसिज को इकटक निरख रहीं मदमाती
मधुऋतु में करते विहार हरि, कालिंदी-तट-पावन
राधा रूप निहारे मोहन, मुखरित है वृन्दावन
राधा कितनी सौम्य सुधामय, कहते श्री मधुसूदन
स्किन्ध कपोल गुलाल लगाये, हरि करते परिरम्भन