Jaao Hari Nirmohiya Re

स्वार्थ की प्रीति जाओ हरि निरमोहिया रे, जाणी थाँरी प्रीत लगन लगी जब और प्रीत थी, अब कुछ उलटी रीत अमृत पाय जहर क्यूँ दीजे, कौण गाँव की रीत ‘मीराँ’ कहे प्रभु गिरधर नागर, आप गरज के मीत