Likhi Nahi Pathwat Hain Dwe Bol

विरह व्यथा लिखि नहिं पठवत हैं, द्वै बोल द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल हम इहि पार, स्याम परले तट, बीच विरह कौ जोर ‘सूरदास’ प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर

Patiyan Main Kaise Likhu Likhi Hi Na Jay

विरह व्यथा पतियाँ मैं कैसे लिखूँ, लिखि ही न जाई कलम धरत मेरो कर कंपत है, हियड़ो रह्यो घबराई बात कहूँ पर कहत न आवै, नैना रहे झर्राई किस बिधि चरण कमल मैं गहिहौं, सबहि अंग थर्राई ‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, बेगि मिल्यो अब आई