Deh Dhare Ko Karan Soi

अभिन्नता देह धरे कौ कारन सोई लोक-लाज कुल-कानि न तजिये, जातौ भलो कहै सब कोई मात पित के डर कौं मानै, सजन कहै कुटुँब सब सोई तात मात मोहू कौं भावत, तन धरि कै माया बस होई सुनी वृषभानुसुता! मेरी बानी, प्रीति पुरातन राखौ गोई ‘सूर’ श्याम नागारिहि सुनावत, मैं तुम एक नाहिं हैं दोई

Soi Rasna Jo Hari Gun Gawe

हरि भक्ति सोइ रसना जो हरि गुन गावै नैनन की छबि यहै चतुरता, जो मुकुन्द-मकरन्दहिं ध्यावै निरमल चित तो सोई साँचो, कृष्ण बिना जिहिं और न भावै श्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि-कथा सुधारस पावै कर तेई जो स्यामहिं सैवै, चरननि चलि वृन्दावन जावै ‘सूरदास’ जैयै बलि ताके, जों हरि जू सों प्रीति बढ़ावै