संत-स्वभाव
कबहुँक हौं या रहनि रहौंगो
श्री रघुनाथ कृपालु-कृपातें, संत स्वभाव गहौंगो
जथा लाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो
परहित निरत निरंतर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो
परिहरि देह जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो
‘तुलसिदास’ प्रभुयहि पथ अविचल, रहि हरि-भगति लहौंगो
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Ya Braj Me Kachu Dekho Ri Tona
मुग्धा
या वृज में कछु देखोरी टोना
ले मटुकी गिर चली गुजरिया, आय मिले बाबा नंद को छोना
दधि की पांग बिसरि गई प्यारी, लीजो रीं कोई श्याम सलौना
बृन्दावन की कुंज गलिन में, आँख लगायो री मन-मोहना
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, सुन्दर श्याम सुघर रस लोना
Kou Ya Kanha Ko Samujhawe
नटखट कन्हैया
कोउ या कान्हा को समुझावै
कैसो यह बेटो जसुमति को, बहुत ही धूम मचावै
हम जब जायँ जमुन जल भरिबे घर में यह घुस जावै
संग सखा मण्डली को लै यह, गोरस सबहिं लुटावै
छींके धरी कमोरी को सखि, लकुटी सो ढुरकावै
आपु खाय अरु धरती पर, गोरस की कीच बनावै
जब हम जल ले चलहिं जमुन सों, यह काँकरी चलावै
फोर गगरिया बहिना हमरे, सूखे वसन भिंगावै
जित देखें दीखत तित ही यह, कैसो अचरज आवै
कैसी री माया मोहन की, ऊधम ही अति भावै