विरह व्यथा
दरस बिन दूखँण लागै नैन
जब से तुम बिछुड़े मेरे प्रभुजी, कबहुँ न पायो चैन
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपें, कड़वे लागै बैन
विरह कथा कासूँ कहुँ सजनी, बह गई करवत ऐन
कल न परत, हरि को मग जोवत, भई छमासी रैन
‘मीरा’ के प्रभु कबरे मिलोगे, दुख मेटण सुख दैन

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