Jo Sukh Braj Me Ek Ghari

ब्रज का सुख
जो सुख ब्रज में एक घरी
सो सुख तीनि लोक में नाहीं, धनि यह घोष पुरी
अष्ट सिद्धि नव निधि कर जोरे, द्वारैं रहति खरी
सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर, ते अवतरे हरी
धन्य धन्य बड़ भागिनि जसुमति, निगमनि सही परी
ऐसे ‘सूरदास’ के प्रभु को, लीन्हौ अंक भरी

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