भक्त के प्रति
काहू के कुल हरि नाहिं विचारत
अविगत की गति कही न परति है, व्याध अजामिल तारत
कौन जाति अरु पाँति विदुर की, ताही के हरि आवत
भोजन करत माँगि घर उनके, राज मान मद टारत
ऐसे जनम करम के ओछे, ओछनि ते व्यौहारत
यह स्वभाव ‘सूर’ के हरि कौ, भगत-बछल मन पारत

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