समर्पण
कन्हैया पे तन मन लुटाने चली
भूल गई जीवन के सपने, भूल गई मैं जग की प्रीति,
साँझ सवेरे मैं गाती हूँ, कृष्ण-प्रेम के मीठे गीत
अब अपने को खुद ही मिटाने चली, कन्हैया पे तन मन लुटाने चली
लिखा नहीं है भाग्य में मिलना, पर मैं मिलने जाती हूँ,
दुःख के सागर में फँसकर भी हँसकर नाव चलाती हूँ
मैं किस्मत से बाजी लगाने चली, कन्हैया पे तन मन लुटाने चली
काशी की गलियों को छाना, अरु मथुरा के मंदिर को,
मैंने पाया अपने मन में, तब ही प्यारे मोहन को
मैं दुनियाँ को यही एक बताने चली, कन्हैया पे तन मन लुटाने चली

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