बाल-माधुर्य
खीजत जात माखन खात
अरुण लोचन भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, छुटि धूसर गात
कबहुँ झुकि के अलक खैंचत, नैन जल भरि जात
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात
‘सूर’ हरि की निरखि सोभा, पलक तजत न जात

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