श्री कृष्ण छबि
लोचन भए स्याम के नेरे
एते पै सुख पावत कोटिक, मो न फेरि तन हेरे
हा हा करत, परिहरि चरननि, ऐसे बस भए उनहीं
उन कौ बदन बिलोकत निस दिन, मेरो कह्यौ न सुनहीं
ललित त्रिभंगी छबि पै अटके, फटके मौसौं तोरि
‘सूर’, दसा यह मेरी कीन्ही, आपुन हरि सौं जोरि

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