मुरली का जादू
मोहन ने मुरली अधर धरी
वृन्दावन में ध्वनि गूंज रही, सुन राधे-स्वर सब मुग्ध हुए
कोई न बचा इस जादू से, सबके मन इसने चुरा लिए
जड़ भी चैतन्य हुए सुन कर, उन्मत्त दशा पशु पक्षी की
जल प्रवाह कालिन्दी में रुक गया, कला ये वंशी की
गोपीजन की गति तो विचित्र, वे उलट-पलट धर वस्त्र आज
चल पड़ी वेग से मिलने को, प्यारे से तज संकोच लाज
अधरामृत पीकर मोहन का, वंशी इतनी इतराती है
सखि! नाम हमारा ले उसमें, सौतन बन हमें बुलाती है
अधरों पर धर वंशी में श्याम, जब भी भरते हैं विविध राग
ऋषि, मुनि, योगी मोहित होते, टूटे समाधि मिटता विराग

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