परब्रह्म
पहचान ले प्रभु को, घट घट में जो है बसते
झूठे सभी है सारे, संसार के जो रिश्ते
जड़ हो कि या हो चेतन, सबमें वही तो बसते
प्रच्छन्न वे नहीं हैं, फिर भी न हमको दिखते
कस्तूरी नाभि में पर, मृग खोजता है वन में
सबके वही प्रकाशक, तूँ देख उनको मन में
वे प्रकृति वही पुरुष हैं, सृष्टि की वे ही शक्ति
वे ॐ द्वारा लक्षित, हो प्राप्त उनसे मुक्ति
जिनका न रूप कोई, हमको वही उबारे
गति सबकी, वे नियन्ता, सबके वही सहारे
अग्नि, धरा, पवन में, सागर, पहाड़ वन में
वे ही तो चराचर में, हर साँस में वही है
जिसने तुम्हें बनाया, उसने जगत् रचाया
उसमें ही तूँ भुलाया, यों उम्र जा रही है
भोगों को छोड़ प्यारे, अस्थिर है सब यहाँ पर
माया है तृष्णा ठगिनी, तुझको फँसा रही है
अब चेत जा तूँ प्यारे, जो नन्द के दुलारे
मन में उन्हें बसाले, पल का पता नहीं है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *