संसार चक्र
कबहूँ मन विश्राम न मान्यो
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहन सुख जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो
जदपि विषय सँग सह्यो दुसह दुख, विषम जान उरझान्यो
तदपि न तजत मूढ़, ममता बस, जानतहूँ नहिं जान्यो
जन्म अनेक किये नाना विधि, कर्म कीच चित सान्यो
‘तुलसिदास’ ‘कब तृषा जाय सर खनतहिं’ जनम सिरान्यो
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Yadyapi Man Samujhawat Log
विरह व्यथा
यद्यपि मन समुझावत लोग
सूल होत नवनीत देखि कै, मोहन के मुख जोग
प्रात-समय ही माखन रोटी, को बिन माँगे दैहे
को मेरे बालक कुँवर कान्ह को, छन छन गोदी लैहे
कहियौ जाय पथिक घर आवैं, राम स्याम दौउ भैया
‘सूर’ वहाँ कत होत दुखारी, जिनके मो सी मैया
Man Mohak Sab Saj Sajyo Ri
पुष्प सज्जा
मन मोहक सब साज सज्यो री
फूलमयी यह जुगल जोति लखि, सखियन को मन फूल रह्यो री
फूलन के ही मुकुट चन्द्रिका, फूलन ही को पाग फल्यौ री
फूलन के ही गजरा कुण्डल, फूलन को ही हार सज्यौ री
फूलन के ही कंकण कचुँकि, फूलन को भुजबन्ध बन्धौ री
फूलन के ही नूपुर पग में, बिछिया फूलनदार रच्यौ री
फूलन से ही मढ़ी मुरलिया, फूलन को कटिबन्ध बँध्यौ री
निरखि निरखि राधा मोहन छवि, तन मन मेरो फूलि रह्यौ री
Tan Man Se Gopiyan Priti Kare
व्यथित गोपियाँ
तन मन से गोपियाँ प्रीति करें, यही सोच कर प्रगटे मोहन
कटि में पीताम्बर वनमाला और मोर मुकुट भी अति सोहन
कमनीय कपोल, मुस्कान मधुर, अद्वितीय रूप मोहन का था
उत्तेजित कर तब प्रेम भाव जो परमोज्ज्वल अति पावन था
वे कण्ठ लगे उल्लास भरें, श्रीकृष्ण करें क्रीड़ा उनसे
वे लगीं सोचने दुनियाँ मे, कोई न श्रेष्ठ ज्यादा हमसे
जब मान हुआ गोपीजन को, अभिमान शान्त तब करने को
सहसा हरि अंतर्ध्यान हुए, दारुण दुख हुआ गोपियों को
Re Man Ram So Kar Preet
श्री राम भजो
रे मन राम सों कर प्रीत
श्रवण गोविंद गुण सुनो, अरु गा तू रसना गीत
साधु-संगत, हरि स्मरण से होय पतित पुनीत
काल-सर्प सिर पे मँडराये, मुख पसारे भीत
आजकल में तोहि ग्रसिहै, समझ राखौ चीत
कहे ‘नानक’ राम भजले, जात अवसर बीत
Janak Mudit Man Tutat Pinak Ke
धनुष भंग
जनक मुदित मन टूटत पिनाक के
बाजे हैं बधावने, सुहावने सुमंगल-गान
भयो सुख एकरस रानी राजा राँक के
दुंदभी बजाई, सुनि हरषि बरषि फूल
सुरगन नाचैं नाच नाय कहू नाक के
‘तुलसी’ महीस देखे दिन रजनीस जैसे
सूने परे सून से, मनो मिटाय आँक के
Re Man Krishna Nam Kah Lije
नाम स्मरण
रेमन, कृष्ण-नाम कह लीजै
गुरु के वचन अटल करि मानहु, साधु-समागम कीजै
पढ़ियै-सुनियै भगति-भागवत, और कथा कहि लीजै
कृष्ण-नाम बिनु जनम वृथा है, वृथा जनम कहाँ जीजै
कृष्ण-नाम-रस बह्यौ जात है, तृषावन्त ह्वै पीजै
‘सूरदास’ हरि-सरन ताकियै, जनम सफल करि लीजै
Re Man Krishna Nam Jap Le
श्री कृष्ण स्मरण
रे मन कृष्ण नाम जप ले
भटक रहा क्यों इधर उधर तू, कान्ह शरण गह ले
जनम मरण का चक्कर इससे, क्यों न मुक्त हो जाये
यह संसार स्वप्न के जैसा, फिर भी क्यों भरमाये
जिनको तू अपना है कहता, कोई भी नहीं तेरा
मनमोहन को हृदय बिठाले, चला चली जग फेरा
Din Dukhi Bhai Bahano Ki Seva Kar Lo Man Se
जनसेवा
दीन दुःखी भाई बहनों की सेवा कर लो मन से
प्रत्युपकार कभी मत चाहो, आशा करो न उनसे
गुप्त रूप से सेवा उत्तम, प्रकट न हो उपकार
बनो कृतज्ञ उसी के जिसने, सेवा की स्वीकार
अपना परिचय उसे न देना, सेवा जिसकी होए
सेवा हो कर्तव्य समझ कर, फ लासक्ति नहीं होए
परहित कर्म करो तन मन से, किन्तु प्रचार न करना
फलासक्ति को तज कर के, बस यही भाव मन रखना
Bhaj Man Ram Charan Sukh Dai
भज मन राम-चरण सुखदाई
जिहि चरनन ते निकसी सुर-सरि, शंकर-जटा समाई
जटा शंकरी नाम पर्यो है, त्रिभुवन तारन आई
जिन चरनन की चरन-पादुका, भरत रह्यो लवलाई
सोई चरन केवट धोइ लीन्हे, तब हरि नाव चढ़ाई
सोई चरन संतन जन सेवत, सदा रहत सुखदाई
सोई चरन गौतम ऋषि-नारी, परसि परम पद पाई
दंडक वन प्रभु पावन कीन्हो, ऋषि मन त्रास मिटाई
सोई प्रभु त्रिलोक के स्वामी, कनक मृगा सँग धाई
कपि सुग्रीव बन्धु भय व्याकुल, तब जय छत्र फिराई
रिपु को अनुज विभीषण निसिचर, परसत लंका पाई
शिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक, शेष सहस मुख गाई
‘तुलसिदास’ मारुत-सुत की प्रभु, निज मुख करत बड़ाई