मोहन की मोहिनी
चित्त चुरा लिया इस चितवन ने
आनंद न समाये उर माहि, सखि अटक गया मनमोहन में
यशुमति के आंगन खेल रहा, मैं मुग्ध हुई उसकी छबि पर
मैं भूल गई घर बार सभी, जादू छाया उसका मुझ पर
कानों में कुण्डल को पहने, सखि चमक गाल पर झलक रही
आभास हुआ मुझको ऐसा, चपला मेघों में चमक रही
कान्हा के रोग, दोष, संकट, होए विनष्ट उसके सारे
सद्गुण सौभाग्य हमारे जो, सम्पूर्ण उसी पर हम वारें 

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