Main Hari Patit Pawan Sune

पतित-पावन
मैं हरि पतित-पावन सुने
मैं पतित तुम पतित पावन दोइ बानक बने
व्याध, गनिका, गज, अजामिल, साखि निगमनि भने
और अधम अनेक तारे, जात कापै गने
जानि नाम अजानि लीन्हें, नरक सुरपुर मने
दास तुलसी सरन आयो, राखिये आपने

Hari Aawat Gaini Ke Pache

गो – चारण
हरि आवत गाइनि के पाछे
मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल तैं आछे
मुरली अधर धरन सीखत हैं, वनमाला पीताम्बर काछे
ग्वाल-बाल सब बरन-बरन के, कोटि मदन की छबि किए पाछे
पहुँचे आइ स्याम ब्रजपुर में, धरहिं चले मोहन-बल आछे
‘सूरदास’ प्रभु दोउ जननि मिलिं, लेति बलाइ बोलि मुख बाँछे

Bhajo Re Bhaiya Ram Govind Hari

हरि कीर्तन
भजो रे भैया राम गोविन्द हरी
जप तप साधन कछु नहिं लागत, खरचत नहिं गठरी
संतति संपति सुख के कारण, जासे भूल परी
कहत ‘कबीर’ राम नहिं जा मुख, ता मुख धुल भरी

Ankhiyan Hari Darsan Ki Pyasi

वियोग
अँखिया हरि दरसन की प्यासी
देख्यो चाहत कमलनैन को, निसिदिन रहत उदासी
आयो ऊधौ फिरि गये आँगन, डारि गये गल फाँसी
केसरि तिलक मोतिन की माला, वृन्दावन को वासी
काहु के मनकी कोउ न जानत, लोगन के मन हाँसी
‘सूरदास’ प्रभु तुमरे दरस बिन, लेहौं करवत कासी

Hari Kilkat Jasumati Ki Kaniyan

माँ का स्नेह
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ
मुख में तीनि लोक दिखराए, चकित भई नँद-रनियाँ
घर-घर आशीर्वाद दिवावति, बाँधति गरै बँधनियाँ
‘सूर’ स्याम की अद्भुत लीला, नहिं जानत मुनि जनियाँ

Mat Kar Moh Tu Hari Bhajan Ko Man Re

भजन महिमा
मत कर मोह तू, हरि-भजन को मान रे
नयन दिये दरसन करने को, श्रवण दिये सुन ज्ञान रे
वदन दिया हरि गुण गाने को, हाथ दिये कर दान रे
कहत ‘कबीर’ सुनो भाई साधो, कंचन निपजत खान रे

Aaj Hari Adbhut Ras Rachayo

रास लीला
आज हरि अद्भुत रास रचायो
एक ही सुर सब मोहित कीन्हे, मुरली नाद सुनायो
अचल चले, चल थकित भये सबम मुनि-जन ध्यान भुलायो
चंचल पवन थक्यो नहि डोलत, जमुना उलटि बहायो
थकित भयो चंद्रमा सहित मृग, सुधा-समुद्र बढ़ायो
‘सूर’ श्याम गोपिन सुखदायक, लायक दरस दिखायो

Hari Ko Herati Hai Nandrani

माँ का स्नेह
हरि को हेरति है नँदरानी
बहुत अबेर भई कहँ खेलत, मेरे साँरगपानी
सुनहति टेर, दौरि तहँ आये, कबके निकसे लाल
जेंवत नहीं बाबा तुम्हरे बिनु, वेगि चलो गोपाल
स्यामहिं ल्यायी महरि जसोदा, तुरतहिं पाँव पखारे
‘सूरदास’ प्रभु संग नंद के, बैठे हैं दोऊ बारे

Hari Ju Hamari Aur Niharo

शरणागति
हरिजू! हमरी ओर निहारो
भटकि रहे भव-जलनिधि माँही, पकरो हाथ हमारो
मत्सर, मोह, क्रोध, लोभहु, मद, काम ग्राह ग्रसि डारो
डूबन चाहत नहीं अवलम्बन, केवट कृष्ण निकारो
बन पाषान परे इत उत हम, चरननि ठोकर मारो
केवल किरपा प्रभु ही सहारो, नाथ न निज प्रन टारो

Kahu Ke Kul Hari Nahi Vicharat

भक्त के प्रति
काहू के कुल हरि नाहिं विचारत
अविगत की गति कही न परति है, व्याध अजामिल तारत
कौन जाति अरु पाँति विदुर की, ताही के हरि आवत
भोजन करत माँगि घर उनके, राज मान मद टारत
ऐसे जनम करम के ओछे, ओछनि ते व्यौहारत
यह स्वभाव ‘सूर’ के हरि कौ, भगत-बछल मन पारत