चेतावनी
तिहारौ कृष्ण कहत का जात
बिछुड़ैं मिलै कबहुँ नहिं कोई, ज्यों तरुवर के पात
पित्त वात कफ कण्ठ विरोधे, रसना टूटै बात
प्रान लिये जैम जात मूढ़-मति! देखत जननी तात
जम के फंद परै नहि जब लगि, क्यों न चरन लपटात
कहत ‘सूर’ विरथा यह देही, ऐतौ क्यों इतरात
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Kar Chintan Shri Krishna Ka
श्री राधाकृष्ण
कर चिन्तन श्रीकृष्ण का, राधावर का ध्यान
अमृत ही अमृत झरे, करुणा-प्रेम निधान
जप तप संयम दान व्रत, साधन विविध प्रकार
श्रीकृष्ण से प्रेम ही, निगमागम का सार
कृष्ण कृष्ण कहते रहो, अमृत-मूरि अनूप
श्रुति-शास्त्र का मधुर फल, रसमय भक्ति स्वरूप
श्रीराधा की भक्ति में निहित प्यास का रूप
आदि अन्त इसमें नहीं, आनन्द अमित अनूप
पद-सरोज में श्याम के, मन भँवरा तज आन
रहे अभी से कैद हो, अन्त समय नहीं भान
कृष्ण प्रिया श्री राधिके, राधा प्रिय घनश्याम
एक सहारा आपका, बंधा रहा नित काम
युगल माधुरी चित चढ़े, राधा-कृष्ण ललाम
हे करुणाकर वास दो, श्री वृन्दावन धाम
श्री वृन्दावन कुंज में, राधा-कृष्ण ललाम
क्रीड़ा नित नूतन करें, अद्वितीय अभिराम
Prabhu Ka Sharanagat Ho Jayen
शरणागति
प्रभु के शरणागत हो जायें
अपने बल का अभिमान त्याग, उनका ही आश्रय ले पायें
प्रभु का ही अंश है जीव मात्र, अंशी की शरण से दुख न रहे
साधना ऐसा कोई न और, चिंताएँ भय सब शोक बहे
वेदों का सार उपनिषद् है, भगवद्गीता उनका भी सार
उसका भी सार शरणागति है, भव-निधि से हमको करे पार
Rana Jimhe To Govind Ka Gun Gasyan
भक्ति भाव
राणाजी! म्हे तो गोविन्द का गुण गास्याँ
चरणामृत को नेम हमारे, नित उठ दरसण जास्याँ
हरि मंदिर में निरत करास्याँ, घूँघरिया धमकास्याँ
राम नाम का झाँझ चलास्याँ, भव सागर तर जास्याँ
यह संसार बाड़ का काँटा, सो संगत नहिं करस्याँ
‘मीराँ’ कहे प्रभु गिरिधर नागर, निरख परख गुण गास्याँ
Karmo Ka Fal Hi Sukh Dukh Hai
कर्म-फल
कर्मों का फल ही सुख दुख है
जिसने जैसा हो कर्म किया, उसका फल वह निश्चित पायेगा
जो कर्म समर्पित प्रभु को हो, तो वह अक्षय हो जायेगा
जो भी ऐसा सत्कर्मी हो, वह उत्तम गति को पायेगा
जो व्यक्ति करे निष्काम कर्म, सर्वथा आश्रित प्रभु के ही
ऐसे भक्तों का निस्संदेह, उद्धार स्वयं प्रभु करते ही
Prem Ho To Shri Hari Ka
कृष्ण कीर्तन
प्रेम हो तो श्री हरि का प्रेम होना चाहिये
जो बने विषयों के प्रेमी उनपे रोना चाहिये
दिन बिताया ऐश और आराम में तुमने अगर
सदा ही सुमिरन हरि का करके सोना चाहिये
मखमली गद्दों पे सोये तुम यहाँ आराम से
वास्ते लम्बे सफर के कुछ बिछौना चाहिये
छोड़ गफलत को अरे मन, पायी जो गिनती की साँस
भोग और विषयों में फँस, इनको न खोना चाहिये
सब जगह बसते प्रभु पर, प्रेम बिन मिलते नहीं
कृष्ण-कीर्तन में लगा मन, मग्न होना चाहिये
Swami Sab Sansar Ka Ji Sancha Shri Bhagwan
संसार के स्वामी
स्वामी सब संसार का जी, साँचा श्री भगवान
दान में महिमा थाँरी देखी, हुई हरि मैं हैरान
दो मुठ्ठी चावल की फाँकी, दे दिया विभव महान
भारत में अर्जुन के आगे, आप हुया रथवान
ना कोई मारे, ना कोई मरतो, यो कोरो अज्ञान
चेतन जीव तो अजर अमर है, गीताजी को ज्ञान
म्हारा पे प्रभु किरपा करजो, दासी अपणी जान
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, चरण-कमल में ध्यान
Kya Yagya Ka Uddeshya Ho
यज्ञ
क्या यज्ञ का उद्देश्य हो
दम्भ अथवा अहं हो नहीं, शुद्ध सेवा भाव हो
हो समर्पण भावना, अरु विश्व का कल्याण हो
इन्द्रिय-संयम भी रहे, अवशिष्ट भोगे यज्ञ में
शाकल्य का मंत्रों सहित, हो हवन वैदिक यज्ञ में
संयम रूपी अग्नि में, इन्द्रिय-सुखों का हवन हो
अध्यात्म की दृष्टि से केवल, शास्त्र का स्वाध्याय हो
इस भाँति ज्ञानाग्नि में साधक, अज्ञान की आहूति दे
आहार संयम भी रहे, तो यज्ञ-साधन मुक्ति दे
द्रव्यों से होता यज्ञ उससे, ज्ञान-यज्ञ ही श्रेष्ठ है
अज्ञान एवं अहं को, ज्ञानाग्नि करती नष्ट है
Prathvi Par Atyacharon Ka
प्रभु प्राकट्य
पृथ्वी पर अत्याचारों का, है लग जाता अम्बार जभी
मंगलमय जो है परब्रह्म, विष्णु लेते अवतार तभी
पुरुषोत्तम श्रीमन् नारायण, हैं परमानन्द स्वरूप आप
स्थापित करते पुनः धर्म, साधु सन्तों का हरें ताप
कछुवा, वराह, हयग्रीव, मत्स्य का रूप धरे वे ही आते
संहार करें वे असुरों का, पृथ्वी का भार वही हरते
श्री राम, कृष्ण, वामन, नरसिंह, जिनका करते हैं भक्त गान
लीलाएँ उनकी पढ़ें सुनें, हिरदै में उनका धरे ध्यान
Gunghat Ka Pat Khol Re Toko Peev Milenge
अज्ञान निवृत्ति
घूँघट का पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे
घट घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे
धन जोबन को गरब न कीजे, झूठा पचरंग चोल रे
सुन्न महल में दीप जलाले, आसन सों मत डोल रे
जाग जुगुत सो रंग-महल में, पिय पायो अनमोल रे
कहे ‘कबीर’ अनन्द भयो है, बाजत अणहद ढोल रे