विरह व्यथा
पतियाँ मैं कैसे लिखूँ, लिखि ही न जाई
कलम धरत मेरो कर कंपत है, हियड़ो रह्यो घबराई
बात कहूँ पर कहत न आवै, नैना रहे झर्राई
किस बिधि चरण कमल मैं गहिहौं, सबहि अंग थर्राई
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, बेगि मिल्यो अब आई

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